उत्तराखंड का अमृत: कैंसर, पथरी और हाई बीपी का पक्का इलाज है बदरी बेरी..जानिए खास बातें
उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मिलने वाली बदरी बेरी कैंसर रोधी होने के साथ ही पथरी, डायबिटीज, ब्लड प्रेशर और लीवर संबंधी रोगों से लड़ने में बेहद कारगर है। देश-विदेश में इसकी डिमांड लगातार बढ़ रही है...
Feb 21 2020 12:24PM, Writer:komal
प्रकृति ने उत्तराखंड को अपनी अनमोल नेमतों से नवाजा है। यहां के पर्वत-जंगल औषधीय गुणों वाली जड़ी-बूटियों का भंडार हैं। पहाड़ के बुजुर्ग लोग वनस्पतियों के औषधीय गुणों के बारे में जानते हैं, पर ये ज्ञान धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है, जिसे सहेजने की जरूरत है। बात जब हिमालयी जड़ी-बूटियों की हो तो एक औषधि का जिक्र हमें बार-बार सुनने को मिलता है। जिसे बदरी बेरी कहते हैं। पीएम नरेंद्र मोदी अपने संबोधन में कई बार इस दुर्लभ जड़ी-बूटी का जिक्र कर चुके हैं। देवभूमि में पाई जाने वाली बदरी बेरी औषधीय गुणों से भरपूर है। पीएम मोदी भी इस खास औषधि की मांग कर चुके हैं। अब शहरों में भी इसकी डिमांड बढ़ने लगी है। बता दें कि इन्वेस्टर समिट-2018 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उत्तराखंड पहुंचे थे तो पीएमओ के अधिकारियों ने प्रधानमंत्री की मांग पर बदरी बेरी का डेढ़ लीटर रस पैक करवाया था। बदरी बेरी को अंग्रेजी में 'सीबक थोर्न' के नाम से जाना जाता है। ये उत्तराखंड के उच्च हिमालयी क्षेत्रों में मिलती है। इसके औषधीय गुण जानकर आप भी हैरान रह जाएंगे।
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बदरी बेरी कैंसर रोधी होने के साथ ही पथरी, डायबिटीज, ब्लड प्रेशर और लीवर संबंधी रोगों से लड़ने में बेहद ही कारगर है। ये उत्तराखंड के पिथौरागढ़, चमोली और उत्तरकाशी जिलों में पाई जाती है। बदरी बेरी का वैज्ञानिक नाम हिपोथी सॉलीसिफोलिया है। जो कि औषधीय गुणों से भरपूर होने के अलावा भूमि के लिए भी उपयोगी माना जाता है। गोपेश्वर जड़ी-बूटी शोध एवं विकास संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. विजय भट्ट कहते हैं कि लोग आज भी बदरी बेरी के औषधीय गुणों के बारे में बहुत कम जानते हैं। हालांकि, इसका इस्तेमाल उच्च हिमालयी इलाकों में रहने वाले ग्रामीण सालों से करते आ रहे हैं। शहरों में प्रदूषण और दूसरी बीमारियों का प्रकोप बढ़ रहा है। ऐसे में बदरी बेरी जैसी खास औषधि का प्रचार शहरों में भी होना चाहिए। ताकि शहरी लोग भी इसका इस्तेमाल कर स्वास्थ्य लाभ ले सकें। बदरी बेरी की डिमांड विदेशों में भी बढ़ रही है। प्रदेश के उच्च क्षेत्रों में इसकी पैदावार को बढ़ावा देकर काश्तकारों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है।