गढ़वाल राइफल का जवान: जिसका शरीर अपने गांव नहीं लौटा, लेकिन 105 साल बाद लौट आई आवाज
सौ साल गुजर गए, Garhwal Rifles के Rifleman Shib Singh kaintura अपने वतन नहीं लौट सके, लेकिन उनकी आवाज देश लौट आई है।
Jul 15 2022 3:27PM, Writer:कोमल नेगी
उत्तराखंड के युद्ध नायकों के शौर्य की कहानियां पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं।
Rifleman Shib Singh kaintura of Garhwal Rifles
प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध में यहां के सैकड़ों जांबाज सैनिकों ने हिस्सा लिया था, जिनमें से कई जवान वापस नहीं लौट पाए। उत्तराखंड के एक ऐसे ही जवान थे गढ़वाल राइफल के सैनिक राइफलमैन शिब सिंह कैंतुरा। शिब सिंह कैंतुरा अब भले ही हमारे बीच नहीं रहे, लेकिन प्रथम विश्व युद्ध के दौरान की ऑडियो रिकार्डिंग एक सदी के बाद उनके वतन पहुंची है। वो फर्स्ट वर्ल्ड वॉर के दौरान जर्मनी के हाफ मून कैंप में युद्ध बंदी थे। जर्मनी में उनके जैसे सात हजार अन्य सैनिकों की आवाज के नमूने रिकॉर्ड किए गए थे। बर्लिन के हम्बोल्ट विवि में लुटार्चिव (साउंड अभिलेख) ने भारत में पत्रकार राजू गुसाईं को गढ़वाल राइफल्स के इस दिवंगत सैनिक के दुर्लभ रिकार्डिंग दस्तावेज उपलब्ध कराए हैं।
Rifleman Shib Singh kaintura Voice Recording
वह बताते हैं, वह इसी गांव के सैनिक देव सिंह और रति सिंह कैंतुरा का रिकार्ड तलाश रहे थे तभी उन्हें इस रिकार्डिंग के बारे में पता चला। पहली/39वीं गढ़वाल राइफल्स के रेजिमेंटल नंबर-2396 शिब सिंह ने ऑडियो रिकार्डिंग में पैतृक गांव का नाम नहीं लिया है, लेकिन दस्तावेजों में गांव का नाम है। दो जनवरी 1917 को रिकार्डेड आवाज में शिब सिंह अपने गांव, परिवार की स्थिति और अपने बचपन की यादों को साझा कर रहे हैं। वह रुद्रप्रयाग से 42 किमी दूर अपने स्कूल के दिनों की दिलचस्प कहानी बता रहे हैं। वो कहते हैं कि उन्होंने अपनी कक्षा के एक लड़के को थप्पड़ मार दिया। चूंकि प्रधानाचार्य उसके पिता के मित्र थे, इसलिए वे गांव के पास जंगल में भाग गए। तीन दिन तक जंगल में ही छिपे रहे। शिब सिंह का जन्म जखोली रुद्रप्रयाग के लुथियाग गांव में हुआ था। यह जखोली से 20 किमी दूर है। तब ये गांव टिहरी रियासत का हिस्सा था।
प्रथम विश्व युद्ध की युद्ध डायरी के दस्तावेज के पृष्ठ संख्या 184/4, खंड 27 के तहत जब शिब सिंह युद्ध बंदी शिविर से रिहा हुए तो उन्हें फुफ्फुस और ब्रोन्कोपमोनिया बीमारी थी। शिविर में भोजन, गंदगी, चिकित्सा सुविधा की कमी से वह संक्रामक रोग का शिकार हुए। जर्मन कैद से रिहाई के बाद 15 फरवरी 1919 को लंदन में उनका निधन हुआ। लुथियाग गांव के ही दीपक कैंतुरा बताते हैं कि उनके परदादा देव सिंह, रति सिंह कैंतुरा भी प्रथम विश्व युद्ध में लड़े और फ्रांस में शहीद हुए। शिब सिंह उनके गांव के थे, लेकिन उनके परिजनों के बारे में किसी को जानकारी नहीं है। सौ साल गुजर गए, शिब सिंह अपने वतन नहीं लौट सके, लेकिन उनकी आवाज देश लौट आई है। आज अगर Rifleman Shib Singh kaintura के परिवार का कोई सदस्य अपने पूर्वज की इस आवाज को सुनेगा तो उसे कैसा लगेगा, ये सोचकर ही आंखें भर आती हैं।