image: Mysterious temple in pauri-0417

उत्तराखंड का रहस्यमयी मंदिर...यहां देवताओं के साथ दानव भी पूजे जाते हैं..जानिए क्यों ?

Apr 26 2017 9:49PM, Writer:मीत

यूं तो उत्तराखंड देवताओं की स्थली कही जाती है। यहां ऐसे ऐसे रहस्य आपको मिलेंगे कि आप खुद ही हैरान हो जाएंगे। हिमालय की गोद में बसे उत्तराखंड के पौड़ी में स्थित थलीसैण ब्लॉक के एक गांव पैठाणी का धार्मिक महत्व संभवतया देश के और धार्मिक स्थानों से थोड़ा भिन्न है, क्योंकि यहां केवल देवता ही नहीं बल्कि दानव की भी पूजा की जाती है। ये थोड़ा अजीब जरूर है, लेकिन कहते हैं कि जनआस्था और विश्वास में कुछ भी नामुमकिन नहीं है। यही कारण है कि पैठाणी के मंदिर में सदियों से दानव की पूजा होती आ रही है। पूरे भारत वर्ष में यहां राहू का एकमात्र प्राचीनतम मंदिर स्थापित है। यह मंदिर पूर्वी और पश्चिमी नयार नदियों के संगम पर स्थापित है। उत्तराखंड के कोटद्वार से लगभग 150 किलोमीटर दूर थलीसैण ब्लॉक के पैठाणी गांव में स्थित इस मंदिर के बारे में कहा जाता है कि जब समुद्र मंथन के दौरान राहू ने देवताओं का रूप धरकर छल से अमृतपान किया था तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शनचक्र से राहू का सिर धड़ से अलग कर दिया।

भगवान विष्णु ने ऐसा इसलिए किया ताकि वह अमर न हो जाए। कहते हैं, राहू का कटा सिर इसी स्थान पर गिरा था। जनश्रुति है कि जहां पर राहू का कटा हुआ सिर गिरा था वहां पर एक मंदिर का निर्माण किया गया और भगवान शिव के साथ राहू की प्रतिमा की स्थापना की गई और इस प्रकार देवताओं के साथ यहां दानव की भी पूजा होने लगी। वर्तमान में यह राहू मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। धड़ विहीन की राहू की मूर्ति वाला यह मंदिर देखने से ही काफी प्राचीन प्रतीत होता है। इसकी प्राचीन शिल्पकला अनोखी और आकर्षक है। पश्चिममुखी इस प्राचीन मंदिर के बारे में यहां के लोगों का मानना है कि राहू की दशा की शान्ति और भगवान शिव की आराधना के लिए ये मंदिर पूरी दुनिया में सबसे उपयुक्त स्थान है। ऐसा ही एक मंदिर दुर्योधन का भी है, जो कि उत्तरकाशी में है। यहां दुर्योधन को देवता की तरह पूजा जाता है और दूर-दूर से लोग यहां आते हैं। उत्तराखंड के उत्तरकाशी जिले में दुर्योधन का मंदिर है।

हैरानी की बात है कि यहां उसके सबसे प्रिय मित्र कर्ण का भी एक मंदिर है। कहते हैं कि भब्रूवाहन महाभारत युद्ध में भाग लेना चाहता था, लेकिन कृष्ण ने उसे युद्ध से वंचित कर दिया। वे जानते थे कि अगर भब्रूवाहन युद्ध में शमिल होगा तो अर्जुन को इससे खतरा हो सकता है और अर्जुन को हानि होने से पांडवों की पराजय हो सकती थी। कहा जाता है भब्रूवाहन का सिर उसके धड़ से अलग कर दिया गया था। हालांकि कृष्ण ने युद्ध शुरू होने से पहले ही भुब्रूवाहन का सिर धड़ से अलग कर दिया, लेकिन उसने युद्ध देखने की इच्छा जाहिर की और भगवान कृष्ण ने उसकी इच्छा पूरी की। उन्होंने भुब्रूवाहन के सिर को यहां एक पेड़ पर टांग दिया और उसने यहीं से महाभारत का पूरा युद्ध देखा। स्थानीय लोगों का कहना है कि जब-जब भी महाभारत के युद्ध में कौरवों की रणनीति विफल होती, जब-जब भी उन्हें हार का मुंह देखना पड़ता, तब भुब्रूवाहन जोर-जोर से चिल्लाकर उनसे रणनीति बदलने के लिए कहता था।वो रोता था और आज भी रो रहा है। कहते हैं कि भब्रूवाहन की कथा वीर बर्बरीक की कहानी से काफी समानता रखती है, लेकिन ये दोनों एक नहीं थे। मान्यता तो ये भी है कि भुब्रूवाहन के इन्हीं आंसूओं से यहां तमस या टोंस नाम की नदी बनी है।


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