विकास की भेंट चढ़ा उत्तराखंड, यहां सबसे ज्यादा काटे गए जंगल, रिपोर्ट में हुआ खुलासा
यह खुलासा हुआ है केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट में। रिपोर्ट के अनुसार राज्य में 15 वर्षों में 14141 हेक्टेयर वन भूमि अन्य उपयोग के लिए ट्रांसफर की गई।
Aug 11 2023 4:32PM, Writer:अनुष्का ढौंडियाल
विकास अगर प्रकृति के बलिदान पर हो, तो वह विकास नहीं सर्वनाश है।
forests were cut in the name of development in Uttarakhand
एक सर्वे के हिसाब से यह खुलासा हुआ है कि पिछले डेढ़ दशक के दौरान हिमालयी राज्यों में सबसे अधिक जंगल उत्तराखंड राज्य में गैर वानिकी उपयोग यानी विकास की भेंट चढ़े। यह हम नहीं कह रहे हैं, बल्कि आंकड़े कह रहे हैं। यह खुलासा हुआ है केंद्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय की रिपोर्ट में। रिपोर्ट के अनुसार राज्य में 15 वर्षों में 14141 हेक्टेयर वन भूमि अन्य उपयोग के लिए ट्रांसफर की गई। हमारी देवभूमि अपने जंगलों, पहाड़ों और नदियों के कारण प्रचलित है। मगर यहां शायद विकास ज़्यादा ज़रूरी है, वो भी प्रकृति के नुकसान की तर्ज पर। आंकड़े बताते हैं कि पड़ोसी राज्य हिमाचल में 6696 हेक्टेयर वन भूमि दूसरे उपयोग के लिए इस्तेमाल हुई। केंद्रीय पर्यावरण वन और जलवायु परिवर्तन मंत्री भूपेंद्र यादव ने लोकसभा में एक प्रश्न के जवाब में ये आंकड़े रखे। आंकड़ों के मुताबिक, वन भूमि डाइवर्जन मामले में उत्तराखंड देश के टॉप 10 राज्यों में शामिल है। राज्य में औसतन प्रत्येक वर्ष 943 हेक्टेयर भूमि दी जा रही है। वर्ष 2008-09 से लेकर वर्ष 2022-23 के दौरान सभी राज्यों में 305945.38 हेक्टेयर भूमि वन संरक्षण अधिनियम 1980 के तहत गैर वानिकी उपयोग के लिए लाई गई। वहीं हिमालयी राज्यों में तो उत्तराखंड नम्बर 1 पहुंच गया है।
चलिए आपको बताते हैं कि पिछले डेढ़ दशक में किन हिमालयी राज्यों से कितनी जंगलों की भूमि विकास की भेंट चढ़ी है। उत्तराखंड से 14141, हिमाचल से 696, जम्मू और कश्मीर से 423, अरुणाचल प्रदेश से 12778, असम से 6166, मेघालय 421, मणिपुर से 3758, मिजोरम से 926, त्रिपुरा से 1860 हेक्टेयर भूमि दान में दी गई है। प्रकृति के लिहाज से उत्तराखंड रिच है मगर यह आंकड़े चिंता में डालने वाले हैं। वन भूमि और जंगल दोनों ही पर्यावरण संरक्षण में अहम भूमिका निभाते हैं। हर साल राज्य आपदाओं और जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों का सामना कर रहा है। यह सब इसलिए हो रहा है कि हम प्रकृति के खिलाफ़ जा रहे हैं और उसकी कदर नहीं कर रहे हैं जिसका परिणाम आज हम सब देख ही रहे हैं। कुल मिला कर, प्रकृति और मनुष्य के बीच विकास आड़े आ रहा है जिसका खामियाजा मनुष्यों को ही भुगताना पड़ रहा है और यह भयावह है।