image: The government is celebrating International Millet Year

उत्तराखंड: सरकार इंटरनेशनल मिलेट ईयर मना रही, उधर उत्तराखंड में 50 प्रतिशत घट गई मोटे अनाज की खेती

मोटे अनाज की 13 प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं। ऐसा ही चलता रहा तो भविष्य में हम इनका स्वाद नहीं ले पाएंगे।
Feb 29 2024 6:53PM, Writer:कोमल नेगी

उत्तराखंड का मोटा अनाज स्वाद और पौष्टिकता के हर पैमाने पर खरा उतरता है। यहां आज भी ग्रामीण क्षेत्रों में अनाज को प्राकृतिक और ऑर्गेनिक रूप से उगाया जाता है।

Cultivation of coarse grains decreased in Uttarakhand

मोदी सरकार मोटे अनाजों को वैश्विक ब्रांड बनाने की कोशिश में लगी है। देशभर में मिलेट्स महोत्सव का आयोजन किया जा रहा है, लेकिन इन सबके बीच उत्तराखंड से एक चिंता बढ़ाने वाली खबर आई है। उत्तराखंड में मोटे अनाज की खेती 50 प्रतिशत घटी है। यहां मोटे अनाज की 13 प्रजातियां विलुप्ति की कगार पर हैं। केंद्रीय विवि और गोविंद बल्लभ पंत विश्व विद्यालय के शोध में पता चला है कि उत्तराखंड में उगाए जाने वाले 23 प्रकार के मोटे अनाजों से अब केवल 10 ही फसलें बची हैं। बाकी 13 विलुप्ति की कगार पर हैं। गढ़वाल केन्द्रीय विवि के वैज्ञानिकों द्वारा जिसमें विवि का अर्थशास्त्र विभाग, हेप्रेक विभाग, गृह विज्ञान विभाग और जीबी पंत विवि के संयुक्त शोध में मोटे अनाज की पैदावार को लेकर रिसर्च किया गया। शोध में चमोली और चंपावत जिले के 3000 किसानों को शामिल किया गया।

शोध के दौरान पता चला कि कभी 2 लाख हेक्टेयर पर की जाने वाली मोटे अनाज की खेती अब सिमट कर 1 लाख हेक्टेयर ही बची है। कभी 23 प्रकार के मोटे अनाज की खेती इन दोनों जनपदों में अब घट कर 10 प्रकार पर आ कर सिमट गई है। इसकी वजहों में पलायन ,जंगली जानवर, बंदर, सुअरों, जंगली भालू का आतंक, ग्लोबल वॉर्मिग शामिल है। कभी पैदावार अच्छी होती है तो जंगली जानवर खेती को बर्बाद कर देते हैं। गढ़वाल केन्द्रीय विवि के अर्थशास्त्र विभाग के वरिष्ठ प्रोफेसर महेश सती कहते हैं कि अगर मोटे अनाज की खेती पर कार्य नहीं किया गया, तो मंडुवा, झंगोरा, चौलाई की खेती 1 लाख 20 हज़ार हेक्टेयर से घट कर 73 हज़ार हेक्टेयर तक ही सीमित रह जायेगी। उन्होंने कहा कि चिंडा, फाफर, कोंडी, ऊवा जौ, भांगड़ा, उगल, राम दाना विलुप्ति की कगार पर पहुंच जाएंगे। अभी हालात ये हैं कि मोटे अनाज के उत्पादन में 50 प्रतिशत की कमी आई है। ये कमी सरकार और नीति नियंताओं के चिंता का विषय है।


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