image: sidhpeeth chandrabadni temple uttarakhand

देवभूमि की मां चन्द्रबदनी..अप्सराओं, गंधर्वों और अनसुलझे रहस्यों से भरा सिद्धपीठ

कहा जाता है कि यहां सच्चे मन से मांगी हुई मुराद जरूर पूरी होती है। उससे भी ज्यादा रहस्यमयी इस मंदिर की कहानी है..पढ़िए
Aug 20 2019 11:35PM, Writer:आदिशा

देवभूमि प्राचीन काल से ही आस्था और कौतुहल का मुख्य केन्द्र रही है। यहां कदम कदम कुछ ऐसे देवस्थान हैं, जहां की कहानियां आस्था को और भी ज्यादा मजबूत कर देती हैं. आज हम आपको एक ऐसे ही सिद्धपीठ के बारे में बताने जा रहे हैं, जो वास्तव में रहस्यों का केन्द्र भी है। दरअसल ये एक ऐसा मंदिर है, जिसके बारे में मान्यताएं हैं यहां रात को गंधर्व और अप्सराएं नृत्य करती हैं। अब ये बात सच है या झूठ, लेकिन लोकमान्यताओं की भी अपनी एक जगह होती है। उत्तराखंड के टिहरी गढ़वाल की चन्द्रबदनी पट्टी में मां भगवती का पौराणिक मन्दिर है। इसे चन्द्रबदनी के नाम से जाना जाता है। चन्द्रकूट पर्वत पर स्थित इस सिद्धपीठ को दुनिया प्रणाम करती है। ये चोटी बांज‚ बुरांस‚ काफल और देवदार वृक्षों से घिरी है। कहा जाता है कि पहले यहां पशुबली दी जाती थी। किन्तु कुछ समय पहले इसे बन्द कर दिया गया‚ जिसका श्रेय श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम के स्वामी स्वo मनमथन को जाता है। अब यहां पर सात्विक विधि–विधान श्रीफल‚ छत्र‚ फल‚ पुष्प आदि द्वारा पूजा की जाती है। अब इस सिद्धपीठ की कहानी भी आपको बताते हैं। आगे पढ़िए

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इस शक्तिपीठ के सम्बन्ध में कहा जाता है कि एक बार राजा दक्ष ने हरिद्वार(कनखल) में यज्ञ किया। दक्ष की पुत्री सती ने भगवान शंकर से यज्ञ में जाने की इच्छा व्यक्त की लेकिन भगवान शंकर ने उन्हें वहां न जाने का परामर्श दिया। मोहवश सती ने उनकी बात को न समझकर वहां चली गयी। वहां सती और उनके पति शिवजी का अपमान किया गया। पिता के घर में अपना और अपने पति का अपमान देखकर भावावेश में आकर सती ने अग्नि कुंड में गिरकर प्राण दे दिये। जब भगवान शिव को इस बात की सूचना प्राप्त हुई तो वे स्वयं दक्ष की यज्ञशाला में गए और सती के शरीर को उठाकर आकाश मार्ग से हिमालय की ओर चल पड़े। वे सती के वियोग से दुखी और क्रोधित हो गये जिससे पृथ्वी कांपने लगी थी। कहा जाता है कि अनिष्ट की आशंका से भगवान विष्णु ने अपने चक्र से सती के अंगों को छिन्न–भिन्न कर दिया। भगवान विष्णु के चक्र से कटकर सती के अंग जहां–जहां गिरे वहां शक्तिपीठ स्थापित हुए। जैसे जहां सिर गिरा वहां का नाम सुरकण्डा पड़ा। कुच(स्तन) जहां गिरे वहां का नाम कुंजापुरी पड़ा। इसी प्रकार चन्द्रकूट पर्वत पर सती का धड़(बदन) पड़ा इसलिये यहां का नाम चन्द्रबदनी पड़ा। यहां के पुजारी बताते हैं कि इस मंदिर में मूर्ति नहीं बल्कि श्रीयंत्र है। यहां के पुजारी आंखें बंद करके या फिर नज़रें झुकाकर श्रीयन्त्र पर कपड़ा डालते हैं। कहां जाता है कि यहां पूजा करने से और सच्चे मन से मां का ध्यान करने से जीवन में बहुत कुछ मिलता है।


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