उत्तराखंड के लिए बड़े खतरे का संकेत..20 साल में नष्ट हो गई 50 हजार हेक्टेयर वन भूमि
उत्तराखंड के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। ये समय संभलने का है, अगर इस तरफ अब भी ध्यान नहीं दिया गया तो प्रकृति हमें फिर संभलने का मौका नहीं देगी।
Dec 8 2020 9:03AM, Writer:Komal Negi
हरे-भरे वन क्षेत्र और जैविक संपदा उत्तराखंड की पहचान हैं। इस संपदा को हमें संजो कर रखना है, लेकिन कमर्शियल एक्टिविटीज के चलते ये संपदा नष्ट होती जा रही है। विकास और पर्यावरण के बीच संतुलन कैसे रखना है, ये हम आज तक नहीं सीख पाए। अब हम जो खबर आपको बताने जा रहे हैं, उसे पढ़कर आपको हैरानी के साथ दुख जरूर होगा। पिछले 20 साल में उत्तराखंड ने 50 हजार हेक्टेयर वन क्षेत्र विकास कार्य के नाम पर खो दिया। जिसमें से 21 हजार 207 हेक्टेयर वन्य भूमि का इस्तेमाल छह अलग-अलग गतिविधियों में हुआ। इस तरह वो 50 हेक्टेयर जमीन जिस पर कभी पेड़ लहलहाते थे, वो अब नष्ट हो चुकी है। ये खुलासा वन विभाग के आंकड़े सामने आने पर हुआ। नवभारत टाइम्स की खबर के मुताबिक गंगा और यमुना जैसी नदियों का उद्मगम स्थल माने जाने वाले उत्तराखंड में वन क्षेत्र तेजी से घट रहा है। प्रदेश में 70 फीसदी से ज्यादा वन भूमि है। जिसमें से 50 हजार हेक्टेयर जमीन से पेड़ काटे जा चुके हैं। पिछले बीस साल में हुई कमर्शियल एक्टिविटीज के चलते ये क्षेत्र अब वन क्षेत्र नहीं रहा। जिस जमीन पर कभी हरे-भरे जंगल हुआ करते थे, उसे विकास के नाम पर नोंच लिया गया। आगे पढ़िए
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इस वन क्षेत्र में कौन-कौन सी कमर्शियल एक्टिविटीज हुई, ये भी बताते हैं। राज्य की तकरीबन 21 हजार 207 हेक्टेयर वन्य भूमि का इस्तेमाल छह प्रमुख गतिविधियों के लिए किया गया। जिनमें हाइड्रोपॉवर प्लांट्स, सड़क निर्माण, वॉटर पाइपलाइन, सिंचाई, निर्माण और खनन संबंधी प्रोजेक्ट शामिल हैं। ज्यादातर वन भूमि यानि 8,760 हेक्टेयर वनक्षेत्र खनन के चलते खत्म हुआ। सड़क निर्माण के नाम पर 7,539 हेक्टेयर वन भूमि को खत्म किया गया। इसी तरह विद्युत वितरण लाइन बिछाने में 2,332 हेक्टेयर वन्य भूमि का इस्तेमाल हुआ, जबकि 2,295 हेक्टेयर वन्य भूमि का इस्तेमाल हाइड्रो पॉवर प्लांट प्रोजेक्ट के नाम पर किया गया। सबसे ज्यादा वन क्षेत्र जिस जिले ने खोया है, वो है देहरादून। यहां 21,303 हेक्टेयर वन्य क्षेत्र नष्ट हुआ। जबकि हरिद्वार में 6,826 हेक्टेयर, चमोली में 3,636 हेक्टेयर, टिहरी में 2,671 हेक्टेयर और पिथौरागढ़ का 2,451 हेक्टेयर वन्य क्षेत्र खत्म चुका है। उत्तराखंड के लिए खतरे की घंटी बज चुकी है। ये समय संभलने का है, अगर वन क्षेत्र को बचाने की तरफ अब भी ध्यान नहीं दिया गया तो प्रकृति हमें फिर संभलने का मौका नहीं देगी।