गढ़वाल: दो भाईयों ने भेड़ की ऊन और कंडाली से बनाए कपड़े, शानदार कमाई..विदेश से भी डिमांड
आपको जानकर हैरानी होगी कि भेड़ की ऊन के जिन कपड़ों की स्थानीय लोग कतई कद्र नहीं करते, उन्हें विदेशों में हाथोंहाथ लिया जा रहा है।
Jul 14 2021 12:43PM, Writer:Komal Negi
घर का जोगी जोगना, आन गांव का सिद्ध। ये कहावत अपने उत्तराखंड पर एकदम सटीक बैठती है। राज्य स्थापना के दशकों बीत गए हैं, लेकिन प्रदेश का ग्रामीण शिल्प और दस्तकारी आज भी पहचान के लिए तरस रहे हैं। उदाहरण के लिए भेड़ की ऊन से बने हैंडलूम वस्त्रों को ही देख लें। एक वक्त था जब भेड़ की ऊन के व्यवसाय में उत्तराखंड की खास पहचान हुआ करती थी, लेकिन धीरे-धीरे हैंडलूम वस्त्र आउट ऑफ फैशन माने जाने लगे। आपको जानकर हैरानी होगी कि भेड़ की ऊन के जिन कपड़ों की हम कतई कद्र नहीं करते, उन्हें विदेशों में हाथोंहाथ लिया जा रहा है। उत्तरकाशी के एक गांव में रहने वाले के दो भाई हर महीने एक हजार रुपये प्रति मीटर के हिसाब से सौ मीटर से अधिक भेड़ की ऊन का हैंडलूम थान जापान भेज रहे हैं। डुंडा के वीरपुर गांव में रहने वाले मनोज नेगी और विनोद नेगी बदलते वक्त में भी अपने पुश्तैनी व्यवसाय से जुड़े हैं। यहां तक कि दोनों भाई कंडाली से भी शानदार कपड़े बना रहे हैं, जिनकी फुल डिमांड है। इस गांव के ज्यादातर लोग जाड़-भोटिया और हिमाचल के किन्नौरी समुदाय से हैं। आगे पढ़िए
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इनका पुश्तैनी व्यवसाय भेड़ पालन और भेड़ की ऊन का हैंडलूम उद्योग है। यहां हर घर में छोटी-छोटी हथकरघा मशीनें हैं। 38 साल के मनोज बताते हैं कि उन्होंने आईटी में डिप्लोमा किया है। 8 साल तक वो देहरादून की एक कंपनी में ग्राफिक डिजाइनर के तौर पर काम करते रहे। इसी दौरान उन्होंने अपने गांव में भेड़ की ऊन से बने कपड़े को बेचने के लिए एक वेबसाइट बनाई। साल 2015 से 2019 तक उन्होंने यूके की एक कंपनी को ग्रामीणों के तैयार किए गए थान बेचे। इस दौरान उनका संपर्क जापान की कंपनी से हुआ। थोड़े दिन बाद वो गांव लौटे और हैंडलूम मशीन लगाकर खुद कपड़ा तैयार करने लगे। ऊन और कच्चा धागा वो गांव की महिलाओं से ही खरीदते हैं, जिससे 20 से ज्यादा महिलाओं को रोजगार मिला है। जिले में ऊन उद्योग की बात करें तो वर्तमान में उत्तरकाशी जिले में 85 हजार से अधिक भेड़ हैं, जिनसे हर साल करीब 95 टन ऊन निकलती है। मनोज जुलाई 2019 से अब तक भेड़ की ऊन से बने करीब 10 लाख रुपये का कपड़ा जापान भेज चुके हैं। वीरपुर गांव के मनोज और उनके भाई के प्रयास से भेड़ की ऊन के पारंपरिक व्यवसाय को संजीवनी मिल रही है।